रितेश कुमार झा
कहां तक जाएगी नफरत की सियासत ? /ये सवाल इसलिये क्क्जयंनीति का स्तर तो पहले ही गिर चुका था…लेकिन ये इस हद तक गिर जाएगा ये किसी ने नहीं सोचा था। भाषाई मर्यादा तो पहले ही तार-तार हो चुकी थी। लेकिन भाषाई मर्यादा की सीमा इस कदर लांघी जाएगी ये किसी ने नहीं सोचा था। कभी भद्रजनों की धरती कहलाने वाले बंगाल में आजकल जो कुछ भी हो रहा है वो इसी का उदाहरण है। एक वक्त था जब बंगाल अपनी शालीनता के लिए देश भर में विख्यात हुआ करता था। लेकिन सियासत ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। अब बंगाल की धरती रक्तरंजित हो गई है। वहां सियासी हिंसा आम बात हो गई है। वहां वर्चस्व की जंग में बेकसूरों की मौत होना कोई नई बात नहीं है। लेकिन अमित शाह की रैली में जो कुछ भी हुआ…उसने भद्रलोक की धरती को फिर से शर्मसार कर दिया है।
कभी क्रांतिकारियों की धरती कहलाने वाली बंगाल आजकल उपद्रवियों की धरती बनकर रह गई है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता होना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जब प्रतिद्वंद्विता वैचारिक की जगह निजी हो जाए तो फिर ऐसी हिंसा होना स्वाभाविक है। बंगाल की धरती हमेशा से इसका गवाह रही है। कांग्रेस ने इस हिंसा के बीज बोए थे…और उसकी सबसे पहली फसल कम्युनिस्टों ने काटी थी। कम्युनिस्टों ने अपने विरोधियों को किनारे लगाने के लिए साम-दाम-दण्ड भेद सबका सहारा लिया। जब उन्हें लगता था कि वे अपने प्रतिद्वंदियों से नहीं जीत पाएंगे तो उनकी हत्या करने से भी उन्हें गुरेज नहीं होता था।
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ममता बनर्जी बनाम कम्युनिस्ट
पहले ये लड़ाई कम्युनिस्टों और कांग्रेस के बीच हुआ करती थी। फिर जब ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस बनाई तो ये हिंसा ममता बनर्जी बनाम कम्युनिस्ट हो गई। समय बदला….ममता बनर्जी ने तीन दशकों तक सत्ता पर काबिज रहे कम्युनिस्टों को सत्ता से बेदखल कर सत्ता पर कब्जा जमाया। लेकिन सत्ता में आते ही उन्होंने कम्युनिस्टों वाला पैंतरा अपना लिया और जो काम कल तक कम्युनिस्ट किया करते थे…वहीं काम तृणमूल के काडर करने लगे। 2014 में समय ने फिर से करवट ली। अब लड़ाई तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच केंद्रित हो गई।
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ममता को लगने लगा कि बीजेपी राज्य में पैर जमा रही है…तो उन्होंने कम्युनिस्टों को छोड़कर बीजेपी पर अपना ध्यान शिफ्ट किया। शुरुआत बयानबाजियों से हुई और फिर हिंसा में बदल गई। दरअसल अपना आधार मजबूत करने के लिए ममता ने मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण का हर हथकंडा अपनाया। हिंदुओं के पर्व-त्योहारों के मौकों पर मुस्लिम त्योहारों को तरहजीह दी। कई बार कोर्ट से फटकार भी मिली। लेकिन ममता ने अपना तरीका नहीं बदला।
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वहीं, बीजेपी इस बात को अच्छी तरह जानती थी कि 2014 के मैजिक को दोहराना मुमकिन नहीं है। खासकर हिंदी पट्टी के राज्यों में मिली अपार कामयाबी को फिर से दोहराना तो बिल्कुल भी मुमकिन नहीं था। इसलिए उसने बंगाल और ओडिशा में अपना जनाधार बढ़ाने की तैयारी शुरू कर दी। ममता के मुस्लिम तुष्टिकरण के जवाब में उसने आक्रामक हिंदुत्व का रास्ता चुना। अमित शाह की रैली में जो कुछ भी हुआ वो इसी का उदाहरण था।
सियासी हिंसा नई बात नहीं
वैसे सियासत में ये कोई नई बात नहीं है। इस तरह की हिंसा पहले भी देखने को मिल चुकी है। जब मतभेद…मनभेद की शक्ल ले ले तो फिर यही होता है। एक वक्त था जब बिहार-यूपी, तमिलनाडु और पंजाब में भी इसी तरह की सियासी प्रतिद्लवंद्विता देखने को मिल चुकी है।
गेस्ट हाउस कांड
आज सपा-बसपा भले ही अपना अस्तित्व बचाने की खातिर पुरानी दुश्मनी को भूलकर एक हो चुकी हैं। लेकिन उनकी दुश्मनी किसी से छुपी नहीं हुई है। वे मतभेद भी वैचारिक नहीं निजी थे। 1993 में मुलायम के इशारे पर हुआ गेस्ट हाउस कांड सबको याद है। मायावती बार-बार उसका जिक्र करती रहीं। कहा कि कुछ भी हो जाए वे गेस्ट हाउस कांड को नहीं भूलेंगी। खैर सियासी मजबूरियों ने उन्हें ये भूलने पर मजबूर कर दिया।
अम्मा-करुणा ने भी निभाई नफरत
तमिलनाडु में भी करुणानिधि और जयललिता की दुश्मनी का स्तर अलग था। दोनो जीवन भर एक-दूसरे से नफरत करते रहे। दोनों ने राजनीतिक दुश्मनी उस हद
जब जया ने लिया था करुणानिधि से बदला
करुणानिधि ने जयललिता को भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल भेजा था. फिर जब जयललिता सत्ता में आईं तो उन्होंने करुणानिधि और मुरासोली मारन को उनके घर से आधी रात को गिरफ़्तार करवा लिया था। इसकी राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई थी।
बिहार में लालू और नीतीश की दुश्मनी
बिहार में लालू और नीतीश की दुश्मनी किसी से छुपी नहीं है। सत्ता पर कब्जे की चाहत ने दोनों को एक-दूसरे का कट्टर दुश्मन बना दिया। तब लालू सत्ता में हुआ करते थे और सत्ता की खातिर ही नीतीश ने अलग पार्टी बनाई थी। आखिर में वे लालू को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे। बीच में अस्तित्व बचाने की खातिर दोनों एक-दूसरे के साथ ज़रूर आए…लेकिन दिखावे की ये दोस्ती ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सकी और दोनों की राहें फिर से अलग-अलग हो गई।
पंजाब में अकालियों और कांग्रेस की दुश्मनी
पंजाब में अकालियों और कांग्रेस की सियासी दुश्मनी भी जगजाहिर है। कांग्रेस ने अकालियों से मुकाबले के लिए भिंडरावाले को बढ़ावा दिया था। हालांकि कांग्रेस का ये दांव आगे जाकर उसी को भारी पड़ गया और भिंडरावाला स्वयंभू बन बैठा। उसने सत्ता को ही चुनौती देनी शुरू कर दी। जिसकी प्रतिक्रिया में ऑपरेशन ब्लू स्टार का सहारा लेना पड़ा। इससे नाराज इंदिरा के बॉडीगार्डों ने उनकी हत्या कर दी। पंजाब कई सालों तक आतंकवाद की आग में जलता रहा।
कैप्टन और अकालियों की दुश्मनी
समय बदला….कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब में कांग्रेस का चेहरा बन गए। कैप्टन की अकालियों से अदावत भी जगजाहिर है। दोनों की सियासत का केंद्र बिंदु ही विरोध पर टिका हुआ है।
नफरत की सियासत की प्रयोगशाला बना बंगाल
अब भद्रलोकों की धरती बंगाल नफरत की सियासत की नई प्रयोगशाला बन गई है। यहां जो सियासी हिंसा हुई है वो पता नहीं कहां जाकर खत्म होगी। सियासी दल अपनी सियासत को चमकाने के लिए न जाने कब तक इस नफरत की आग को तीली लगाते रहेंगे।