डॉ.ब्रह्मदीप अलूने
प्रख्यात हिन्दू नेताओं को, उनकी इच्छानुसार दफनाया गया है। दक्षिणी राज्य तमिलनाडू की राजनीति 20 वी सदी से ही सामाजिक न्याय स्थापित करने को प्रतिबद्द द्रविड़ आंदोलन के आसपास घूमती है और इसके सिद्धांतों पर चलना लोकतंत्र में बने रहने के लिए जरूरत भी बन गया है। आज़ादी से पहले और इसके बाद के तमिलनाडु में पेरियार का गहरा असर रहा है और राज्य के लोग उनका कहीं अधिक सम्मान करते हैं। उनका आत्म सम्मान आंदोलन सामाजिक राजनीतिक कार्यों के परिणाम स्वरूप अत्यधिक मुखर विरोध की विचारधारा थी।

पेरियार ने जन्म के आधार पर सामाजिक स्तर और योग्यता का एकमात्र पैमाना निश्चित करने का विरोध किया था। उन्होंने पौराणिक हिन्दुवाद से उपजे पुरोहित वाद पर सीधे प्रहार करते हुए तमिल या द्रविड़ीयन संस्कृति के व्यापक तंत्र का समर्थन प्राप्त किया। इस प्रकार पेरियार रामास्वामी नाइकर ने एक नये मूल मंत्र की मांग की, जिसमें जाति और धर्म से परे सभी लोग समान आत्म सम्मान प्राप्त कर सके।
प्रख्यात हिन्दू नेताओं को क्यों किया गया फॉलो…

यह आंदोलन पुरोहितों के बिना विवाह करना, बलात मंदिर प्रवेश करने, मनु स्मृतियों की प्रतियां जलाने और महिलाओं की समानता पर जोर देता था। 1944 में सलेम अधिवेशन में उन्होंने द्रविड़ कड़गम संगठन को सामाजिक न्याय की लड़ाई का अग्रणी बना दिया। तमिलनाडु की वर्तमान राजनीति इन्हीं सिद्धांतों के इर्द गिर्द घूमती है। पेरियार का तमिलनाडु के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्यों पर असर इतना गहरा है कि कम्युनिस्ट, दलित आंदोलन विचारधारा, तमिल राष्ट्रभक्त से तर्कवादियों और नारीवाद की ओर झुकाव वाले सभी उनका सम्मान करते हैं, उनका हवाला देते हैं और उन्हें मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं।
तर्कवादी, नास्तिक और वंचितों के समर्थक पेरियार के सिद्धांत तमिलनाडु की राजनीति का अब पर्याय बन गए हैं। इसीलिए जयललिता और करुणानिधि को मरने के बाद भी स्वीकार्यता बने रहने दफनाना प्रासंगिक नज़र आया।
पिछड़ी जातियों में अब भी यह परंपरा

वहीं हिन्दू धर्म में मृतक को जलाने की परम्परा है। इसमें मुक्ति के लिए अस्थियों का गंगा में विसर्जन, मृतक का तर्पण, पिंडदान और पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करना आवश्यक माना गया है। इन परम्पराओं के साथ पुरोहितों का होना आवश्यक माना गया है और उन्हें पृथ्वी का देव या भूदेव कहा गया है। हिन्दू धर्म में मुक्ति का यह मार्ग कुछ लोगों के लिए ही प्रासंगिक बन गया,सामाजिक निर्योग्यताओं को लागू करके समाज का एक बड़ा तबका विधि विधान से बाहर कर दिया गया। http://घूंघट वाली बहू का ब्यूटीशियन बनने का ख्वाब जब उसे पेरिस ले गया…
अब भी बहुत सी पिछड़ी दलित आदिवासी जातियों में दफनाने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। जाहिर है इन जातियों को पुरोहितों ने सनातन धर्म के रीति रिवाजों से ख़ारिज कर उन्हें धार्मिक और सामाजिक शिक्षाओं से लगातार दूर रखा।

तमिलनाडु के शीर्ष नेता करुणानिधि की मृत्यु के बाद लाखों लोगों के आंसुओं के बीच उनके अंतिम संस्कार को लेकर बेहद संशय की स्थिति बनती दिखाई पड़ी। जनसामान्य की संवेदनशीलता से मामला अदालत के सामने गया और द्रविड़ आंदोलन के इस पुरोधा को मरीना बीच पर दफना दिया गया।
द्रविड़ आंदोलन के नेता अपने नाम के आगे कभी जाति सूचक शब्द नहीं लगाते है। जयललिता,एमजी रामचंद्रन,अन्नादुरे जैसे नेताओं ने ताउम्र न केवल पालन किया बल्कि उन्हें मरने के बाद दफनाया गया। द्रविड़ राजनीति में सामाजिक एकता और सामाजिक न्याय के लिए आडम्बरों पर इसी प्रकार प्रहार किया जाता है और यह नेता की लोकप्रियता और सर्व मान्यता को पुख्ता भी करता है।
(उपरोक्त आर्टिकल में लिखी विचार लेखक के अपने हैं)