एग्जिट पोल और पोस्ट पोल क्या होते हैं? सबके मन में यह सवाल रहता है। किसी भी पार्टी के बारे में हवा बनाने के पहले चुनावी सर्वे करने वाली एजेंसियां बहुत सारे लोगों से फीडबैक लेती हैं. ऐसे लोगों का मन टटोलने की कोशिश करते हैं कि मतदाताओं के पार्टी पर अपना भरोसा दिखाया है. यह सारा काम होता है एग्जिट और पोस्ट पोल के जरिए और इसके लिए जरूरी है सैंपलिंग करना।
सैंपलिंग को समझने के लिये एग्जिट पोल, पोस्ट पोल सर्वे और ओपिनियन पोल को जानना ज़रूरी है। यह समझने के बाद ही सैंपलिंग का गणित समझ में आएगा।
क्या होते हैं पोस्ट पोल?

पोस्ट पोल एग्जिट के परिणाम ज्यादा सटीक होते हैं. एग्जिट पोल में सर्वे एजेंसी मतदान के तुरंत बाद मतदाता से राय जानकर मोटा-मोटा हिसाब लगा लेती हैं. जबकि पोस्ट पोल हमेशा मतदान के अगले दिन या फिर एक-दो दिन बाद होते हैं. जैसे मान लीजिए 6वें चरण की वोटिंग 12 मई को हुई थी. तो सर्वे करने वाली एजेंसी मतदाताओं से 13, 14, या 15 मई तक इस चरण में वोट देने वाले मतदाताओं से उनकी राय जानने की कोशिश करें, तो इसे पोस्ट पोल कहा जाता है.
पोस्ट पोल क्यों होते हैं ज्यादा सटीक?
एग्जिट पोल में मतदाताओं के वोट देने के तुरंत बाद उनकी राय जानने की कोशिश की जाती है. सर्वे करने वाले लोग पोलिंग बूथ के बाहर ही ऐसा सर्वे करने करते हैं. इसलिए मतदाता अपनी पहचान छुपाते हुए हड़बड़ी में राय बता देते हैं जोकि जरूरी नहीं कि सही ही हो. जबकि पोस्ट पोल में एक दिन बाद वोटर से बातचीत करके उसके मन को टटोलने की कोशिश की जाती है कि आखिर उसने किस प्रत्याशी को मत दिया है. इस दौरान वह किसी कंफ्यूजन में नहीं होता है और लगभग सही-सही राय बता देता है.
यह भी पढ़ें: http://आखिर क्यों गरमाया जा रहा है अयोध्या का मुद्दा
ओपिनियन पोल

ओपिनियन पोल एग्जिट पोल से अलग होते हैं. ओपिनियन पोल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल पत्रकार, चुनावी सर्वे करने वाली एजेंसियां करती हैं. इसके जरिए पत्रकार विभिन्न मसलों, मुद्दों और चुनावों में जनता की नब्ज टटोलने के लिए किया करते थे. श्रेय जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन सबसे पहले इसका इस्तेमाल किया था.
जानिए कैसे होती है पोल के लिए सैंपलिंग?
ओपियन पोल तैयार करने में सबसे बड़ा काम फील्ड वर्क का होता है. इसकी सैंपलिंग के लिए चुनावी सर्वे करने वाली एजेंसी कर्मचारी आम लोगों से मिलते हैं और कुछ सवाल पूछते हैं. कैंडिडेट अच्छा है या बुरा. इस आधार पर भी एक मोटा-मोटी राय जान ली जाती है. वहीं इस प्रक्रिया में जिन लोगों को शामिल किया जाता है उन्हें एक फॉर्म भी भरने को दिया जाता है. फॉर्म को भरवाने की भी एक लंबी प्रक्रिया होती है. मतदाताओं की पहचान गुप्त रहे और वो बेझिझक आपनी राय दे दें. ऐसे में उनके लिए सीलबंद डिब्बा रखा जाता है. ताकि वे अपने पसंद के उम्मीदवार के बारे में भरा पर्चा उसमें डाल दें. ओपिनियन पोल में सबसे महत्वपूर्ण चीज सैंपलिंग होती है. सैंपलिंग का मतलब है कि किन लोगों से राय जानने की कोशिश की गई है या की जाएगी.
रैंडम सैंपलिंग?

देश की बड़ी सर्वे एजेंसियां रैंडम सैंपलिंग का सहारा लेती हैं. इसमें सीट, बूथ स्तर पर और मतदाता स्तर पर रैंडम सैंपलिंग होती है. मान लीजिए किसी बूथ पर 2000 वोटर्स हैं. उसमें से 100 लोगों का इंटरव्यू करना है. तो ये 100 लोग रैंडम तरीके से शामिल किए जाएंगे. इसके लिए दो हजार का 100 से भाग दिया तो 20 बचा. इसके बाद वोटर लिस्ट में से कोई एक ऐसा नंबर रैंडम आधार पर लेंगे जो 20 से कम हो. जैसे मान लीजिए आपने 12 लिया. तो वोटर लिस्ट में 12वें नंबर पर जो मतदाता होगा वो पहला सैंपलिंग कैंडिडेट होगा जिसका इंटरव्यू सर्वे एजेंसी करेगी. फिर उस संख्या 12 में 20, 20 ,20 जोड़ते जाते हैं और मतदाता का इंटरव्यू किया जाता है. ये होती रैंडम सैंपलिंग.
किन-किन माध्यमों से होती है सैंपलिंग?
ओपिनियन पोल जानने के लिए फील्ड के साथ ही अखबारों में भी एक फॉर्म दिया जाता था. जिसे भरकर लोग पते पर भेज देते थे. वक्त बदलने के साथ ही टेक्नोलॉजी बदलती गई और सैंपलिंग का तरीका भी थोड़ा-थोड़ा बदलते गया. कई सर्वे एजेंसियां अब फोन कॉल्स, एसएमएस ऑनलाइन भी सैंपलिंग करने लगी हैं. हालांकि, भारत के संदर्भ में फोन कॉल सैंपलिंग बेहद कारगर नहीं क्योंकि इसके जरिए सही जानकारी मिले यह जरूरी नहीं. इसीलिए इंटरव्यू के आधार पर की गई सैंपलिंग कमोबेश सटीक परिणाम देती है.