The life of the brave mothers of revolutionaries- खो दिये थे जब लाल, खुद रहीं ताउम्र बेहाल

The life of the brave mothers of revolutionaries
The life of the brave mothers of revolutionaries

The life of the brave mothers of revolutionaries- काकोरी ऑपरेशन के जिन तीन शहीदों-रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाकउल्लाह खां और रोशन सिंह का आज शहादत दिवस है, उनमें सबसे पहले बिस्मिल की माता मूलरानी का जिक्र करें तो वे ऐसी वीर माता थीं कि गोरखपुर की जेल में बेटे की शहादत से पहले उससे मिलने पहुंचीं तो उसकी डबडबाई आंखें देखकर भी धैर्य नहीं खोया, कलेजे पर पत्थर रख लिया और उलाहना देती हुई बोलीं, ‘अरे, मैं तो समझती थी कि मेरा बेटा बहादुर है और उसके नाम से अंग्रेज़ सरकार भी थरथराती है। मुझे पता नहीं था कि वह मौत से इतना डरता है।’

मां का बहादुर बयान

फिर जैसे इतना ही काफी न हो, उससे पूछा, ‘तुझे रोकर ही सूली चढ़ना था तो इस राह पर कदम ही क्यों रखा ?’ उनके साथ क्रांतिकारी शिव वर्मा भी थे, जिन्हें वे अपना भांजा बताकर साथ लिवा गई थीं। उनके अनुसार, ‘इसके बाद बिस्मिल ने बरबस आंखें पोंछ डालीं और कहा था कि वे आंसू मौत के डर से नहीं, उन जैसी बहादुर मां से बिछड़ने के शोक में बरबस निकल आए थे।’ माता ने फौरन शिव को आगे करके कहा था, ‘यह तुम्हारी पार्टी का आदमी है। पार्टी के लिए कोई संदेश देना हो तो इससे कह सकते हो।’

The life of the brave mothers of revolutionaries-ऐसे किया जीवनयापन

The life of the brave mothers of revolutionaries 2
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लेकिन अपने क्रूरतम रूप में आई ग़रीबी ने बिस्मिल के जाते ही इस वीर माता को ख़ून के आंसू रुला दिए। जीवनयापन के लिए उन्हें अपना शाहजहांपुर स्थित घर और कभी बड़े लाड़ से बिस्मिल के लिए बनवाए सोने के बटन, जो यादगार के तौर पर उनके पास थे, बेच देने पड़े। इसके आगे का जीवन भी कलपते और भटकते हुए उन्होंने इस याद के सहारे काटा कि बिस्मिल के रूप में वे राम जैसा पुत्र चाहती थीं, वह पैदा हुआ तो इसीलिए उन्होंने उसका नाम भी राम रखा था। इस माता ही नहीं, उनकी सास यानी बिस्मिल की दादी को भी उनकी शहादत की कीमत चुकानी पड़ी थी। अपनी निर्धनता के दिनों में उन्हें धार्मिक आस्था वाले लोगों के उस दान पर निर्भर रहना पड़ा था, जो एकादशी आदि पर शहीद की दादी नहीं, ब्राह्मणी होने के चलते उन्हें मिल जाता था।

इन्हें भी सहनी पड़ीं दुश्वारियां

ऐसे में काकोरी कांड के दूसरे शहीद रोशन सिंह की माता कौशल्या देवी ही शहीद की मां का सिला कैसे पा सकती थीं, जिनके परिवार का भी बाद में भयानक सामाजिक आर्थिक दुश्वारियों से सामना हुआ और जिनकी बेटियों तक ने उनकी शहादत की कीमत चुकाई। जहां भी बेटियों का रिश्ता तय किया जाता, पुलिस अधिकारी अंग्रेज़ सरकार के कोप का डर दिखाकर उसे तुड़वाने पहुंच जाते। धमकाते कि रोशन की बेटी से शादी करने वाला भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा उनके जैसा ही ‘अपराधी’ माना जाएगा और डरपोकों को रिश्ता तोड़ने में ही भलाई नज़र आती। बहुत कठिनाई के बाद इन बेटियों की मांग भरी जा सकी। रोशन सिंह की अनुपस्थिति में उनकी माता और पत्नी के सबसे बड़े अवलंब ‘प्रताप’ के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी थे, जो गाहे-बगाहे उनकी आर्थिक मदद किया करते थे।

The life of the brave mothers of revolutionaries-खस्ताहाल हो गया परिवार

जिंदान-ए-फ़ैज़ाबाद से सू-ए-अदम जाने वाले अशफ़ाक़उल्लाह ख़ान के परिजनों की गिनती अपने समय के संभ्रांत और संपन्न लोगों में होती थी और उनका ननिहाल भी सुखी और समृद्ध था। लेकिन अशफ़ाक़ पर चले मुकदमे की पैरवी में आए भारी ख़र्च ने इन दोनों को बर्बाद करके उनकी हालत ख़स्ता कर दी थी। इतना ही नहीं, उनकी कई संपत्तियां अंग्रेज़ सरकार ने जबरन अपने क़ब्ज़े में कर ली थी। फलस्वरूप अशफ़ाक़ की माता मज़हूरउन्निसां बेगम को भी उनकी शहादत के बाद ढेर सारी सामाजिक कृतघ्नताएं झेलनी पड़ीं। वे अशफ़ाक़ द्वारा शहादत से ऐन पहले लिखे भावनात्मक पत्र पढ़तीं तो उनके ग़म की कोई थाह नहीं रह जाती, जबकि सगे संबंधियों का रुख़ उसे बांटने में मददगार होने के बजाय बेरुख़ी वाला रहता था। वे डरे रहते थे कि अशफ़ाक़ के माता-पिता से हमदर्दी रखने पर अंग्रेज़ सरकार उनको भी अपने दुश्मनों में शुमार कर लेगी और उन पर भी वैसे ही ज़ुल्म ढाएगी।

काकोरी कांड के एक और शहीद राजेंद्रनाथ लाहिड़ी की जन्मभूमि अब बांग्लादेश में है

हां, उनके दुर्दिन में एक बार चंद्रशेखर आज़ाद वेश बदल कर मदद करने शाहजहांपुर आए थे। वाकया यूं है कि वे अचानक आए, दालान में बैठे और जब तक वहां अकेले बैठे परिजन उनसे परिचय पूछते, एक गिलास पानी और एक बीड़ी की मांग कर डाली। परिजन पानी और बीड़ी लेने अंदर गए और लौटे तो पाया कि मांगने वाला वहां रुपयों से भरा एक थैला छोड़कर जा चुका है।

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The life of the brave mothers of revolutionaries

आज़ाद बीड़ी नहीं पीते थे और उसकी मांग उन्होंने इसलिए की थी कि उनकी पहचान छिपी रहे। काकोरी कांड के एक और शहीद राजेंद्रनाथ लाहिड़ी की जन्मभूमि अब बांग्लादेश में है। गोंडा ज़िले की जेल में उनको इस आशंका में बिस्मिल, अशफ़ाक़ और रोशन सिंह से दो दिन पहले ही शहीद कर दिया गया था कि क्रांतिकारी उन्हें छुड़ाने के प्रयत्न कर सकते हैं। लेकिन आज उनकी जन्मभूमि के लोग उनकी माता का नाम तक नहीं जानते। उनके पुत्रविछोह के दारुण दुख की बाबत भी जानकारियों का अकाल-सा है। यानी वे लाहिड़ी की जननी होने के सहज श्रेय से भी वंचित कर दी गई हैं।

कृष्ण प्रताप सिंह-साभार