Reviving Takri, Himachal’s Lost Script- गुम होती स्क्रिप्ट को बचाने की जद्दोजहद को जानिये

Dogri tankri himachal scripts
Dogri tankri himachal scripts

Reviving Takri, Himachal’s lost script-हिमाचली लिपि टाकरी को कुछ लोग टांकरी भी कहते हैं। कश्मीर से व्यापार के लिए आने वाले लोगों ने इस लिपि का प्रयोग तत्कालीन पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों में किया और धीरे-धीरे यह लिपि मंदिरों, व्यापारियों के बहीखातों में इस्तेमाल होने लगी और इसका व्यापक प्रसार भी हुआ। लेकिन बाद में प्रिंटिंग प्रेस आने और पंजाब से अलग होकर बने राज्य हिमाचल प्रदेश में इस लिपि को लगभग बिसरा दिया गया। असल में लिपि महज भाषा का लिखित रूप ही नहीं है, बल्कि इसमें छिपे हैं स्वदेशी चिकित्सा पद्धति का ज्ञान, साहित्य और दर्शन। अब अनेक भाषा एवं शिक्षाविद टाकरी स्क्रिप्ट के इतिहास को खंगालने के साथ-साथ वर्तमान में अनेक प्रयास कर रहे हैं। ताकि इसे भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जा सके।

Reviving Takri, Himachal’s lost script

tankri 2
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हाल के समय में विलुप्त किसी लिपि का क्या उपयोग है? इस सवाल का जवाब आपको तब मिल जाएगा जब आप यह सवाल युनाइटेड स्टेट्स या युनाइटेड किंगडम में किसी गैलरिस्ट से पूछेंगे। असल में कला की दुनिया में पहाड़ी चित्रकारों का दबदबा रहा है। बात अगर बीते कुछ वर्षों की करें तो इस कलाकारी का नेतृत्व तत्कालीन पंजाब की पहाड़ियों के गुलेर के नैनसुख ने किया था। उनका यह काम निश्चित रूप से पहाड़ी कलाकारी की बिसरा दी गयी लिपि को चिन्हित करने की दिशा में मील का पत्थर बन गया। एक समय शाही दरबारों और व्यापारिक समुदाय की माने जाने वाली लिपि, टाकरी (Reviving Takri, Himachal’s lost script) देवनागरी और उर्दू के बढ़ते उपयोग के बाद फीकी पड़ गई।

कश्मीर की शारदा लिपि से निकली है टाकरी

दशकों बाद, इस लिपि के जो कुछ भी अवशेष हैं, उन्हें बचाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जो एक बार वर्तमान हिमाचल प्रदेश की विभिन्न भाषाओं को परिभाषित करते हैं, जैसे कि लाहौल-स्पीति से कुल्लू तक, मंडी से कांगड़ा तक, सिरमौर से चंबा और उससे आगे। कश्मीर की शारदा लिपि से उत्पन्न टाकरी 13वीं शताब्दी में पंजाब की पहाड़ियों पर आई थी। आम आदमी के लिए पहाड़ियों पर स्थित मंदिरों पर शिलालेख खोई हुई भाषा का सबसे स्पष्ट प्रमाण होंगे। लेकिन शोधकर्ता इसके अध्ययन के दौरान अक्सर खुद को मंदिरों, भू-राजस्व अभिलेखों, शाही पत्राचार, कुछ अनुवाद कार्यों, पहाड़ी चित्रों के इर्द-गिर्द पाते हैं। लिपि के खो जाने का मतलब है स्वदेशी चिकित्सा पद्धति का ज्ञान, साहित्य और दर्शन भी लुप्त हो जाना।

Reviving Takri, Himachal’s lost script-सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने क्या कहा था

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सौ साल पहले तक स्थिति ऐसी नहीं थी। तब टाकरी मुख्य लिपियों में से एक थी, जैसा कि सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने 1916 के लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में पुष्टि की थी, ‘पूरे पश्चिमी पहाड़ी क्षेत्र में, लिखित स्वरूप किसी न किसी रूप में है। टाकरी वर्णमाला के साथ-साथ नागरी और फारसी वर्ण का इस्तेमाल भी पढ़े-लिखे लोगों द्वारा उपयोग किए जाते हैं।’

पंजाब में गुरुमुखी या जम्मू में डोगरी

आजादी से पहले (अंग्रेजों द्वारा) और आजादी के बाद देश को एकीकृत करने के प्रयास, एक तरह से लिपि के लिए कयामत की तरह थे। अपने क्षेत्र से बाहर दुनिया के साथ पत्राचार में वृद्धि का मतलब उर्दू और देवनागरी के उपयोग में वृद्धि थी, जो पहले से ही स्कूलों में शिक्षा के माध्यम थे। पड़ोसी राज्य पंजाब में गुरुमुखी या जम्मू में डोगरी (दोनों शारदा से उत्पन्न) से इतर, 1971 में हिमाचल के निर्माण के बाद, इसे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने या इसे राज्य लिपि का दर्जा देने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए। भाषाविद् गणेश देवी का कहना है कि उस दौर में लेखन तकनीक बदल गई थी। ‘तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र और गुजरात के विपरीत, हिमाचल को पूरी तरह से एक भाषाई राज्य के रूप में नहीं बनाया गया था। इसकी अन्य जटिल विशेषताएं जैसे कि-पारिस्थितिक, सामाजिक, ऐतिहासिक आदि थीं। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं है कि तत्कालीन सरकार का प्राथमिक फोकस ‘स्क्रिप्ट’ यानी लिपि पर नहीं था।’

टाकरी को सहेजने की कवायद

मंडी के विद्वान जगदीश कपूर के मुताबिक, टाकरी तेजी से केवल पुराने समय के लोगों के लिए एक स्क्रिप्ट बन गई, जिनमें से कुछ 1970 के दशक तक इसका इस्तेमाल कर रहे थे। उन्हें याद है कि 1970 के दशक में जब वह बैंकिंग सेवा में आए थे, तब टाकरी में हस्ताक्षर करने वाले लोग थे, लेकिन धीरे-धीरे टाकरी में हस्ताक्षर करने वाले खत्म होते चले गए। उनकी रुचि इस लिपि को लेकर तब बढ़ी जब उन्होंने अपने दादा के अकाउंट लेजर को टाकरी भाषा में पाया। इसके बाद उन्होंने यह लिपि सीखनी शुरू की।

Reviving Takri, Himachal’s lost script

पिछले कुछ वर्षों में, कुल्लू के एक शोधकर्ता यतिन पंडित ने स्थानीय मंदिरों के कई बही खातों का अनुवाद किया है। वह कहते हैं, ‘कुछ तो 1930, 1940 के ही हैं।’ 39 वर्षीय एक इतिहास प्रेमी ने ब्रिटिश विद्वानों द्वारा किताबों में लिपि के कई संदर्भों के बारे में देखा और वर्ष 2016 में, टाकरी सीखना शुरू किया। उन्होंने कांगड़ा स्थित एक संगठन सांभ द्वारा विकसित फ़ॉन्ट का उपयोग करना सीखा, जो हिमाचली विरासत के संरक्षण की दिशा में काम करता है।

कुल्लुवी टाकरी के लिए एक वर्णमाला की पुस्तक हो रही तैयार

पिछले कुछ वर्षों से, वह टाकरी पर कक्षाएं दे रहे हैं और कुल्लुवी टाकरी के लिए एक वर्णमाला की पुस्तक तैयार करने पर काम कर रहे हैं, इसके अलावा वह अक्षरों के आकार के साथ-साथ इसकी उन संभावनाओं को भी तलाश रहे हैं कि आखिर ऐसा किसलिए हुआ। टाकरी के संदर्भ में उनका यह प्रयास इस लिपि को बचाने की दिशा में बड़ा काम है।
60 वर्षीय पद्मश्री सम्मान से नवाजे गए चित्रकार विजय शर्मा से लेकर 36 वर्षीय पारुल अरोड़ा तक, टाकरी को इसके उत्साही प्रशंसक मिल गए हैं जो वर्णमाला सीखने और अपने ज्ञान को साझा करने की कोशिश कर रहे हैं।

इनमें से शर्मा चंबा के भूरी सिंह संग्रहालय में पढ़ा रहे हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका में मेट्रोपॉलिटन संग्रहालय जैसे अंतर्राष्ट्रीय संग्रहालयों की मदद कर रहे हैं और पहाड़ी चित्रों पर टाकरी शिलालेखों को समझने में सोथबी जैसे नीलामी घरों की मदद कर रहे हैं, उनके अलावा अरोड़ा हिमाचल प्रदेश कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी-मंडी द्वारा प्रायोजित एक छोटा टाकरी स्कूल चलाते हैं। उनके पांच छात्र विभिन्न पृष्ठभूमि से आते हैं। इन पांच छात्रों में एक लेखक हैं, दूसरे पत्रकार हैं। इनके अलावा एक शिक्षक हैं, एक निजी क्षेत्र के कर्मचारी और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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लॉकडाउन में आया आइडिया

अरोड़ा का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान अपनी नौकरी गंवाने के बाद उनका पूरी तरह से रुझान लिपि की ओर हो गया था। मंडी के अपने साथी टाकरी प्रेमी जगदीश कपूर को स्क्रिप्ट के लिए किए गए सभी प्रयासों के बावजूद उचित हक न मिलने से दुखी होकर इस साल की शिवरात्रि पर उन्होंने मंडी में अपनी पुस्तक का एक स्टाल लगाने की व्यवस्था की, जहां पुस्तक की 100 से अधिक प्रतियां बिकीं। टाकरी की खोज की उनकी यात्रा में एक प्रमुख खोज 19वीं शताब्दी में मंडी के राजा विजयसेन के शासनकाल के दौरान लिखी गई बख्शी राम की एक पुस्तक ‘वर्णमाला टाकरी’ रही है। ‘अच्छी लिपि सीखने के लिए इसे बेहतरीन किताब कहा जा सकता है। इसमें स्वर, व्यंजन, मात्राएं, वाक्य विन्यास, पत्र लेखन और यहां तक कि टाकरी में पहाड़े भी हैं। यह पुस्तक इस बात का प्रमाण है कि यह एक पूर्ण लिपि थी, गुणा, भाग और जोड़, घटा सारणी से संकेत मिलता है कि इसे शायद स्कूलों में भी पढ़ाया जाता था। हमें इस पर काम करने के लिए एक आधार मिल गया है।’

शिद्दत से की कोशिश

अब जबकि बहुत सारे युवा शोधकर्ता टाकरी को बहुत जरूरी प्रोत्साहन दे रहे हैं, तब यह कांगड़ा के जगदीश कपूर, एवं कवि हरिकृष्ण मुरारी, चंबा से स्व. डॉ रीता शर्मा और कुल्लू के स्व. खुब्रम खुशदिल की वजह से समय की कसौटी पर खरा उतरा है। इन सबमें मुरारी ने राज्य और अन्य जगहों में ज्यादातर उत्साही युवाओं को टाकरी का प्रशिक्षण दिया। इनमें से खुशदिल, जिनका पिछले साल निधन हो गया था, को उस व्यक्ति के रूप में श्रेय दिया जाता है जिसने पिछली शताब्दी में सबसे अधिक टाकरी दस्तावेज एकत्र किए थे। इतिहासकार तोबदान का कहना है कि खुशदिल को इसका श्रेय जाता है कि उन्होंने एक ऐसी स्क्रिप्ट को संरक्षित करने की दिशा में काम किया, जिससे राज्य और यहां के लोग दूर हो गए थे। अपने पूरे जीवन में उन्होंने मंडी, कुल्लू और लाहौल से टाकरी दस्तावेजों को एकत्र किया और उनका अनुवाद किया, उनमें से कुल्लू जिले के बंजार तहसील में ऐतिहासिक चेहनी कोठी के पास मुरलीधर मंदिर में एक मूर्ति के नीचे एक विशाल ढेर खोजा गया।

खुशदिल के विशाल संग्रह को संरक्षित करने की कोशिश

तोबदान कहते हैं, ‘टाकरी के अस्तित्व के साथ समस्या यह है कि उपलब्ध दस्तावेजों में से ज्यादातर ऐसे विषयों (तंत्र-मंत्र, राजस्व रिकॉर्ड, आदि) पर हैं जिनमें गंभीर विद्वानों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है।’ हालांकि, उन्हें लगता है कि खुशदिल के विशाल संग्रह को संरक्षित करने और विद्वानों के साथ साझा करने की आवश्यकता है।
एक वृत्तचित्र फिल्म निर्माता हिमाल नचिकेता दास ने खुशदिल को अपनी फिल्म ‘टांकरी’ में जीवन के अंतिम पड़ाव की ओर दिखाया। उनका कहना है कि खुशदिल के घर पर हजारों दस्तावेज पड़े हैं और समय के साथ नष्ट होने से पहले उन्हें संरक्षित करना उचित होगा। उन्होंने भाषा अकादमी के लिए उनमें से लगभग 5,000 की फोटोकॉपी भी की है। कुल्लू के देव सदन में एक संग्रहालय में उनमें से चंद दस्तावेजों का प्रदर्शन किया गया है।

Reviving Takri, Himachal’s lost script

संभा के संयोजक अरविंद शर्मा कहते हैं कि गुरुमुखी के पक्ष में जो महत्वपूर्ण बात है, वह है गुरु ग्रंथ साहिब का इसी लिपि में लिखा हुआ होना। आखिरकार, इसके बाद विभिन्न साहित्यिक लेखन हुए। देवी का कहना है कि टाकरी के साथ ऐसा नहीं हो सकता था क्योंकि यह स्क्रिप्ट एक अलग उद्देश्य की पूर्ति कर रही थी।
देवी कहते हैं, ‘जब हम 13वीं और 14वीं शताब्दी के दौरान भारत में लेखन प्रणालियों को देखते हैं, तो यह याद रखना आवश्यक है कि कागज का व्यापार इस समय के आसपास भारत में आया था और फल-फूल रहा था। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कागज का उपयोग ‘रिकॉर्ड कीपिंग’ से संबंधित लेखन के लिए किया जा रहा था। परिणामस्वरूप, देश के विभिन्न हिस्सों में इस चरण के आसपास विभिन्न शार्ट हैंड प्रणालियां विकसित हुईं। उदाहरण के लिए, पश्चिमी भारत में ‘मोदी’ लिपि का उपयोग उन क्षेत्रों में किया जाता था जो अब गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक के रूप में जाने जाते हैं।’

शारदा की जगह लेने वाली टाकरी स्क्रिप्ट

ये पूरी तरह से नयी स्क्रिप्ट नहीं थीं, बल्कि मौजूदा लिपियों के नये फॉर्मूलेशन थे, जिनमें अक्षरों को जोड़ना या एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाना अपेक्षाकृत आसान था। शारदा की जगह लेने वाली टाकरी स्क्रिप्ट इसी प्रकार की एक स्क्रिप्ट थी। देवी कहते हैं, ‘इसके उपयोग की प्रकृति को देखते हुए, यह ‘कमोडिटी-एक्सचेंज गिल्ड’ (उदाहरण के लिए व्यापारी उपयोग के लिए) के नेटवर्क के माध्यम से विशाल क्षेत्रों में फैल गयी। पहले की लिपि शारदा टाकरी के विपरीत वंशावली, कविता और दार्शनिक ग्रंथ लिखने के लिए उपयोग में लाई जाती थी।

प्रिंट तकनीक आने के बाद टाकरी में गिरावट

यह मुख्य रूप से ‘साहित्यिक’ वर्ग द्वारा उपयोग की जाने वाली एक लिपि थी। बाद की शताब्दियों में, टाकरी को छोटे पहाड़ी राज्यों के बीच एक जगह मिली क्योंकि इसे शासक अभिजात वर्ग द्वारा आसानी से समझा जा सकता था। और चूंकि उन्होंने टाकरी को स्वीकार कर लिया था, साहित्यकार वर्ग ने भी इसे अपनाया। भारतीय भाषाओं के लिए प्रिंट तकनीक आने के बाद टाकरी में गिरावट आने लगी।’

Reviving Takri, Himachal’s lost script

लेकिन इस बीच उन लोगों के बीच उम्मीदों की किरणें जगती रहती हैं जो इस लिपि को सीखने और सिखाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। ऐसे लोगों में से यतिन पंडित एक ऐसे ही शख्स हैं जो जो दिन में दैनिक जरूरतों की वस्तुओं की दुकान चलाते हैं और रात में इतिहास के शौकीन बन जाते हैं। ऐसे ही पारुल अरोड़ा हैं जिन्होंने महामारी के दौरान अपनी नौकरी खोने के बाद जीवन में नया अर्थ खोजा। हरिकृष्ण मुरारी भी ऐसे ही उम्मीद जगाने वालों में से हैं जो अब टाकरी में एक साहित्यिक कार्य का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे लोगों से उम्मीद जगती है कि शायद एक साथ वे उस चीज़ को वापस पाने में सक्षम होंगे जो अभी तक पूरी तरह से खोई नहीं है।

साभार- सारिका शर्मा-( द ट्रिब्यून)- उपरोक्त लेख वरिष्ठ पत्रकार द्वारा द ट्रिब्यून समाचार पत्र में प्रकाशित।