International Day of Yoga- 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। ऐसे अवसर पर आवश्यकता है योग के दर्शन पक्ष को भी समझने की, स्वयं को स्थूल शरीर मात्र न मानकर अनंत संभावनाओं से भरे हुए सूक्ष्म और कारण शरीर को समझने तथा इस शरीर के अंदर विद्यमान आत्म तत्व पर भी ध्यान देने की, सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना के साथ योग की आत्मा यम-नियम रूपी व्यवहार साधना को भी अपनाने की, जिससे योगाभ्यास का पूर्ण प्रभाव जीवन में साकार हो सके और समग्र स्वास्थ्य के साथ मानव उत्कर्ष के सभी आयाम विकसित हो सकें।
International Day of Yoga
योग सदियों से भारतीय जनमानस के चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार में निहित रहा है। भारतीय दार्शनिक चिंतन परंपरा कोरा बौद्धिक विलास न होकर योग साधना से प्राप्त अनुभवों की अभिव्यक्ति रही है। इसीलिए योग, साधना पद्धति के साथ-साथ एक जीवन दर्शन भी है। योग के ग्रन्थों में मानव सहित प्राणी मात्र के कल्याण की न सिर्फ प्रार्थना की गई है, बल्कि उसके व्यावहारिक उपाय भी बताये गए हैं, जो मानव के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक, आत्मिक और सामाजिक उत्कर्ष में सहायक हैं।
‘पहला सुख निरोगी काया’ के प्रति जनचेतना ने आम लोगों को भी अब योगाभ्यास से जोड़ दिया है। आज योग को एक चिकित्सा पद्धति के रूप में भी अपनाया जा रहा है।
International Day of Yoga

वास्तव में योग सिर्फ स्थूल शरीर की चिकित्सा न होकर स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों की चिकित्सा पद्धति है। यौगिक दृष्टि से शरीर आत्मा का आवरण है, जिसके तीन स्तर हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। पंचभूतों से बने स्थूल शरीर को ही हम देखते, जानते और पहचानते हैं। योग की दृष्टि में इस स्थूल शरीर का आधार सूक्ष्म शरीर है, जो पंचज्ञानेंद्रियों, पंचकर्मेंद्रियों, मन, बुद्धि, चित्त आदि का समुच्चय है। इस सूक्ष्म शरीर का आधार कारण शरीर है, जिसमें भाव और संस्कारों का वास है। इसको कारण शरीर इसलिए कहते हैं, क्योंकि यही सूक्ष्म और स्थूल शरीर का मूल कारण है। इस यौगिक रहस्य को भाव, विचार और कर्म समुच्चय द्वारा समझा जा सकता है। स्थूल शरीर से होने वाले हमारे सम्पूर्ण व्यवहार व कर्म का आधार हमारा विचार (मन/ सूक्ष्म शरीर) होता है और विचारों का आधार हमारे भाव व संस्कार (कारण शरीर) होते हैं।
दरअसल, जैसे हमारे भाव-संस्कार (कारण शरीर) होते हैं, वैसे ही विचार बनते हैं और जैसे विचार (सूक्ष्म शरीर) होते हैं, उसी अनुरूप स्थूल शरीर से कर्म होने लगते हैं, कर्म के अनुरूप ही जीवन बन जाता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व और जीवन इन्हीं तीनों शरीरों के कार्यों का फल है। प्रत्येक शरीर एक-दूसरे को प्रभावित करता है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी ऐसा ही है।
मन में आये क्रोध का प्रभाव तन पर हर कोई अनुभव कर सकता है। इसी तरह तनाव, निराशा, कुंठा, अवसाद आदि अन्य मनोकायिक रोग भी हैं, जिनकी जड़ें सूक्ष्म शरीर (मन) में होती हैं।
आयुर्वेद के मनीषियों ने सभी प्रकार के रोगों का, वात-पित्त-कफ़ के कुपित होने का मूल कारण प्रज्ञापराध को माना है, जिसका संबंध सूक्ष्म और कारण शरीर से है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य से तात्पर्य सिर्फ
स्थूल शरीर के स्वस्थ होने से नहीं है, अपितु समग्र रूप में स्वस्थ होने से है.
डॉ. गोविन्द प्रसाद मिश्र