72 साल पहले, आज़ाद हिंदुस्तान से पहले कश्मीर एक अलग रियासत हुआ करती थी. तब कश्मीर पर डोगरा राजपूत वंश के राजा हरि सिंह का शासन था. डोगरा राजवंश ने उस दौर में पूरी रियासत को एक करने के लिए पहले लद्दाख को जीता था. फिर 1840 में अंग्रेजों से कश्मीर छीना. तब 40 लाख की आबादी वाली इस कश्मीर रियासत की सरहदें अफगानिस्तान, रूस और चीन से लगती थीं. इसीलिए इस रियासत की खास अहमियत थी.
फिर 1947 में आजादी के बाद तब पाकिस्तान नया-नया बना था. अब एक तरफ हिंदुस्तान था, दूसरी तरफ पाकिस्तान और बीच में ज़मीन का ये एक छोटा सा टुकड़ा.. कश्मीर. एक आजाद रियासत…और यहीं से शुरू होती है दास्तान-ए-कश्मीर.
72 साल पहले ऐसा था जन्नत का नज़ारा

करीब 700 साल पहले जिस गुलिस्तां को शम्सुद्दीन शाह मीर ने सींचा था. उनके बाद तमाम नवाबों और राजाओं ने जिसको सजाया-संवारा. जिसकी आस्तानों और फिजाओं में चिनार और गुलदार की खुशबू तैरती थी. जिसे आगे चलकर जमीन की जन्नत का खिताब मिला. उसी कश्मीर में आज से ठीक सत्तर साल पहले एक राजा की नादानी और एक हुकमरान की मनमानी ने फिजाओं में बारूद का ऐसा जहर घोला जिसकी गंध आज भी कश्मीर में महसूस की जा सकती है.
कश्मीर घाटी को पाकिस्तानी आतंकियों से बचाने के लिए महाराजा हरि सिंह ने आखिरकार भारत के साथ मिल जाने का फैसला किया. भारतीय सेना ने दुश्मनों को खदेड़ कर रख दिया. फिर इस जंग के आखिरी दिन एलओसी का जन्म हुआ. महाराजा हरि सिंह के हिंदुस्तान के साथ जाने के फैसले के फौरन बाद भारतीय सेना ने कश्मीर में मोर्चा खोल दिया. रात के अंधेरे में विमान के जरिए भारत ने सेना और हथियारों को बिना एटीसी के डायरेक्शन के श्रीनगर में उतार दिया. उस वक्त हमलावर कबायली श्रीनगर से महज एक मील की दूरी पर थे. http://मंत्रियों को भनक नहीं थी, पीएम-शाह ने ऐसे खत्म किया आर्टिकल…
भारतीय सेना ने सबसे पहले श्रीनगर के इर्द-गिर्द एक सुरक्षा घेरा बनाया. इसके बाद तो जंग की सूरत बदलते देर नहीं लगी.

जंगी सामान की कमजोर सप्लाई और नक्शों की कमी के बावजूद जांबाज भारतीय सैनिकों ने एक के बाद एक तमाम ठिकानों से पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ना शुरू कर दिया. भारतीय सेना के बढ़ते कदमों की धमक ने तब तक कबायलियों के दिलों में दहशत पैदा कर दी थी. उनमें भगदड़ मच चुकी थी. लिहाजा देखते ही देखते सेना ने बारामूला, उरी और उसके आसपास के इलाकों को वापस कबायलियों से अपने कब्जे में ले लिया.
मोर्चा संभालते ही भारतीय सेना ने पाकिस्तान को अहसास करा दिया कि भारत सिर्फ आकार में ही नहीं बल्कि दिलेरी में भी पाकिस्तानी से बहुत बड़ा है. मोर्चा संभालने के अगले कुछ महीनों में ही दो तिहाई कश्मीर पर भारतीय सेना का कब्जा हो चुका था. भारतीय फौज जीत का परचम लहरा चुकी थी. http://गृह मंत्रालय ने कहा: सुरक्षा बलों को ज़्यादा सतर्क रहने को कहें
ऐसे अलग हुआ LOC और POK
इस जंग के बाद कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में पहुंचा. जिसके बाद 5 जनवरी 1949 को सीजफायर का ऐलान कर दिया गया. तय हुआ कि सीजफायर के वक्त जो सेनाएं जिस हिस्से में थीं उसे ही युद्ध विराम रेखा माना जाए. जिसे एलओसी कहते हैं. इस तरह कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया जिसे आज पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) कहा जाता है. जिसमें गिलगित, मीरपुर, मुजफ्फराबाद, बाल्टिस्तान शामिल हैं.
कश्मीर पर कब्जे की जंग
कश्मीर को जख्मी करने वाली इस वारदात को आज करीब 70 साल हो गए हैं. पाकिस्तान अभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है. पूरे कश्मीर पर कब्जे के लिए शुरू हुई 1947 से ये जंग अब भी जारी है. 1949 में सीजफायर के ऐलान के बाद एलओसी की लकीर खिंच चुकी थी. यहां तक कि उसके बाद पाकिस्तान से लगने वाली तमाम सरहदों पर जो सेनाएं तैनात की गईं वो आज तक कायम हैं. 1949 से लेकर 1965 तक कश्मीर को हथियाने के लिए पाकिस्तान कोई न कोई मक्कारी करता रहा.
आजादी के बाद एक तरफ हिंदुस्तान तरक्की की नई ऊंचाइयां छू रहा था तो वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान ने अपनी सारी ताकत दुनियाभर से हथियारों को बटोरने में जुटा रखी थी. भारत से करारी शिकस्त के बाद भी पाकिस्तान बाज नहीं आया और उसने कश्मीरी जेहादियों के भेस में अपनी सेना के जवानों को चोरी छिपे करगिल की पहाड़ियों पर घुसा दिया. लेकिन ऑपरेशन विजय चलाकर भारतीय जांबाजों ने दुश्मन के नापाक मंसूबों पर पानी फेर दिया.
हालांकि पहाड़ियों की ऊंचाई की वजह से पाकिस्तानी आतंकियों का सामना करने में भारतीय फौज के सामने कई मुश्किलें आ रही थीं. लेकिन भारत ने तोपों की गरज ने दुश्मन के हौसले पस्त कर दिए. भारतीय फौज ने 26 जुलाई 1999 को कारगिल से पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार भगाया था.
courtesy news-aajtak